CPRI Shimla ने तैयार किया आलू का बीज, ’92-पीटी-27′ के नाम से दी मान्यता, पनीरी लगाने के बाद रोपा जाएगा….

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  • देश के किसान अब आलू के कंदों से ही नहीं, बल्कि अब इस मूल बीज से भी फसल की पैदावार कर सकेंगे।
  • किसानों को खेतों में बीजने के लिए बाजार से बोरियों में आलू भरकर लाने की जरूरत नहीं होगी और न ही आलू काटकर खेतों में बीजा जाएगा।

शिमला : पहाड़ी खेती, समाचार ( 24, मई ) केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) शिमला ने पहली बार आलू का बीज (ट्रू पोटेटो सीड) तैयार किया है।

प्राप्त जानकारी अनुसार इसे निजी कंपनियों के जरिये किसानों को उपलब्ध करवाना भी शुरू कर दिया है। बीज से पहले खेतों में पनीरी तैयार करेंगे, उसके बाद तैयार पौध रोपी जाएगी।

डॉ. एन के पांडेय, निदेशक, सीपीआरआई 

यह आलू बीज देश के पहाड़ी, पूर्वोत्तर और पूर्वी मैदानी राज्यों को लक्षित कर बनाया गया है। कंद वाले आलू बीज के मुकाबले लागत बेहद कम हो जाएगी। बता दें कि इस बीज की तकनीक को सीपीआरआई पटना ने विकसित किया है।

अब पहली बार इसका उत्पादन शिमला में किया गया है। सीपीआरई शिमला ने 92-पीटी-27 के नाम से इसे मान्यता दी है। इस आलू बीज की फसल को पानी की उपलब्धता वाले किसी भी क्षेत्र में उगाया जा सकेगा।

देश के किसान अब आलू के कंदों से ही नहीं, बल्कि अब इस मूल बीज से भी फसल की पैदावार कर सकेंगे। इसका फायदा यह भी होगा कि किसानों को खेतों में बीजने के लिए बाजार से बोरियों में आलू भरकर लाने की जरूरत नहीं होगी और न ही आलू काटकर खेतों में बीजा जाएगा।

आलू के भंडारण की भी जरूरत नहीं है। इससे आलू बीज की ढुलाई का खर्च भी बचेगा। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए कुफरी किस्म का कंद बीज 3800 रुपये प्रति क्विंटल जाता था। इसकी ढुलाई पर बहुत ज्यादा खर्च आता था। गौर हो कि अमूमन कंदें तैयार होने के बाद आलू निकाल लिया जाता है। अगर आलू न निकाला जाए तो उसका मूल बीज तैयार होने लगता है। आलू के बीज देखने में मिर्च के बीज की तरह होते हैं। 

मूल बीज का उपयोग कैसे करें 
मूल बीज की पौध उगाने के लिए पनीरी तैयार करते हैं, जिसे बाद में ठीक से तैयार क्यारियों में उगाया जाता है। इसमें श्रम अधिक लगता है। बुवाई के लिए करीब 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज का इस्तेमाल किया जाता है।

बीज के फायदे 
इसका उपयोग रोग मुक्त बीज उत्पादन के लिए किया जाता है। यह विषाणु मुक्त बीज उत्पादन की तकनीक है। पारंपरिक तरीके से रोपण के लिए उपयोग किए जाने वाले कंदों की लागत बहुत अधिक होती है, जबकि नर्सरी में अगले वर्ष रोपण के लिए कंदों का उत्पादन अपेक्षाकृत बहुत कम होता है। 

आलू का मूल बीज यानी ट्रू पोटेटो सीड (टीपीएस) के भंडारण की समस्या नहीं रहती है। इसकी ढुलाई आसानी से हो जाती है। देश के जिन दुर्गम क्षेत्रों में आलू की कंदें पहुंचानी कठिन रहती हैं, वहां टीपीएस आसानी से पहुंचाया जा सकता है। देश के पूर्वोत्तर के किसानों में बीज लोकप्रिय हो रहा है। – डॉ. एनके पांडेय, निदेशक, सीपीआरआई 

साभार: एजेंसियां, अमर उजाला, सोशल मीडिया नेटवर्क।

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