बिदेसिया….

पहाड़ी खेती: ( एन. पी. सिंह ) कोविड-19,से लड़ाई के दौर में देश को एक नई समस्या से जूझना पड़ रहा है। राजधानी दिल्ली समेत तमाम छोटे-बड़े शहरों से मजदूरों का पलायन। खासकर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से बड़ी संख्या में कारखाना मजदूर, दिहाड़ी कामगार , बिहार और उत्तर प्रदेश में स्थित अपने गांवों की ओर पैदल ही निकल पड़े हैं। इस अप्रत्याशित स्थिति का देश के किसी भी जिम्मेदार पदाधिकारी को रत्ती भर अंदाजा नहीं था। लॉकडाउन की स्थिति में झुंड बनाकर चल रहे इन मेहनतकशों की तस्वीरों ने देश के सामने कुछ गहरे सामाजिक-आर्थिक सवाल खड़े कर दिए हैं।
आजादी से लेकर आज तक रोजगार की तलाश में पलायन की पीड़ा भारतीय समाज में त्रासदी की तरह कायम है। गरीब-मजदूर लोग आम तौर पर शादी के बाद मजदूरी करने के लिए बड़े शहर चले जाते हैं। पलायन के बाद घर में पति के इंतजार में बैठी पत्नी को कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। इन सारी समस्याओं को केन्द्र में रखकर भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया नाटक की रचना की।
भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वह एक लोक कलाकार के साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया । उनकी प्रतिभा का आलम यह था कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनको ‘अनगढ़ हीरा’ कहा, तो जगदीशचंद्र माथुर ने कहा ‘भरत मुनि की परंपरा का कलाकार’ ।
कोविड-19, की समस्या के दौरान देश भर से हो रहे लाखों मजदूरों के पलायन पर खबर करते हुए जब प्रवासी मजदूरों के आंकड़ों को खंगालने का प्रयास किया तो नवभारत टाईम्स में प्रकाशित प्रिय रंजन झा के लेख ” कभी नहीं डूबता पूरब का सूरज ” पर नजर पड़ी। इस लेख में लेखक ने पूर्वांचल समुदाय के मनोमिजाज और बदलाव पर सटीक जानकारी दी है जिसे अपने पाठकों से सांझा करने का मोह हम नहीं त्याग सके। आगे का लेख लेखक के मूल स्वरूप में :-
इन्होंने कभी दुनिया के पहले गणतंत्र की नींव रखी थी, तो स्वतंत्रता संग्राम की अपनी पहली लड़ाई महात्मा गांधी ने इन्हीं के साथ मिलकर लड़ी थी। चाणक्य से लेकर बुद्ध, महावीर तक का नाम इनके साथ जुड़ा है। इतनी रईस विरासत के बावजूद गरीबी से ये निपट नहीं पाए हैं। आप इन्हें पसंद करें या नापसंद लेकिन इन्हें नकार नहीं सकते। यहां जिक्र हो रहा है पूर्वांचलियों का।
पूर्वांचली होने का मतलब बहुत कुछ वैसा ही है, जैसा विदेशों में भारतीय होने का मतलब। यानी आप तमाम जाति, धर्म के लोग हो सकते हैं, लेकिन पूर्वांचल के बाहर आप बस पूर्वांचली हैं। तभी तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में ऐसे लोगों के लिए एनआरआई की तर्ज पर एनआरबी यानी नॉन रेजिडेंट बिहारी शब्द प्रचलित है।
आमतौर पर पूर्वांचल का मतलब एक्सटेंडेड बिहार से होता है, जिसमें बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश शामिल हैं। मुख्य रूप से भोजपुरी और मैथिली की भाषाई पहचान वाले पूर्वांचली बेहद मिलनसार और कहीं भी किसी भी माहौल में घुलमिल जाने वाले होते हैं। कल्चर का बोलबाला ऐसा कि इंग्लिश सिखाने आए टीचर को भोजपुरी सिखाकर भेज दें। कभी पूर्वांचलियों के लिए दिल्ली बहुत दूर हुआ करती थी। तब मुंबई, दिल्ली, लखनऊ या कोलकाता जैसी मेट्रो सिटी मौसमी मजदूरों के ठिकाने हुआ करते थे या फिर अकैडमिक्स और बॉलिवुड में ऊंचे ख्वाब देखने वाले नौजवानों की शरणगाह। लेकिन आज हालत यह है कि अगर आप आंख मूंदकर पत्थर उछालेंगे तो दिल्ली जैसे महानगरों में चोट खाने वाला हर तीसरा शख्स पूर्वांचली होगा। दिल्ली की ही बात करें तो कभी यहां का सबसे बड़ा किराएदार रहा यह वर्ग आज खांटी अपनी कॉलोनियां बसा चुका है और दिल्ली-एनसीआर में फैलती समृद्धि का सबसे तेजी से उभरता हिस्सेदार है। कमोबेश यही स्थिति लखनऊ, कोलकाता और मुंबई जैसे मेट्रोज की है तो सात समंदर पार मॉरिशस और फिजी तक इससे अछूते नहीं हैं।
बदली सोच तो बदली राह
‘नौकरी ना करी’ और ‘बनूंगा तो आईएसएस नहीं तो बकरी चराऊंगा’ जैसे जुमले उछालने वाले पूर्वांचल के लोग फक्कड़, घुमक्कड़ और लाल बुझक्कड़ तो हमेशा से रहे हैं, लेकिन जिंदगी बेहतर हो और इसके लिए संभव हो तो घर भी छोड़ना चाहिए या जाति बुरी चीज है, इससे बाहर निकलना चाहिए और सरकारी नौकरी ही सबकुछ नहीं है, प्राइवेट में भी दम है, जैसी सोच उनमें बड़ी देर से पैदा हुई। और जब एक बार पैदा हो गई, तो फिर वे रुके नहीं।
चंद्रगुप्त-चाणक्य और अशोक की धरती से निकले ये लोग आज आपको फुटपाथ से लेकर पीएमओ, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक की सुप्रीम कुर्सी तक, एक्स्ट्रा से लेकर सदी के महानायक तक, टुटपुंजिया कवि से लेकर ज्ञानपीठ से सम्मानित कवि, कहानीकार तक, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स से लेकर रियल्टी सेक्टर के सरताज तक, फटेहाली से लेकर फिलंथ्रॉपी में रेकॉर्ड बनाने तक, पार्टी का झंडा ढोने वालों से लेकर जेबी पार्टी बनाकर पीएम के दावेदार बनने तक… और गली क्रिकेट के शौकीन से लेकर इंडियन टीम के कैप्टन तक… हर रंग और ढंग में दिख जाएंगे। दरअसल, यही विविधता पूर्वांचलियों की सबसे बड़ी खासियत भी रही है। जिस मामले में आपको विडंबनाओं का अंबार दिखेगा, उसी मामले में इनकी तरक्की आपकी आंखें चौंधिया सकती है।
मुश्किलों पर पलटवार
मुश्किलों पर पलटवार करना पूर्वांचलियों की सबसे बड़ी ताकत रही है, तो मुफलिसी से निकलकर फलक पर छा जाना इनकी फितरत। जहां इनकी बड़ी आबादी ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है, वहीं सच यह भी है कि आईएएस, आईआईटी और आईआईएम क्रैक करने वालों में पूर्वांचलियों की संख्या दूसरों के लिए ईर्ष्या का सबब रहा है।
गिरमिटिया मजदूर बन कभी सात समंदर दूर गए यहां के लोगों ने गुलामी पर आंसू तो बहाए, लेकिन अपनी मेहनत के बल पर मॉरिशस, फिजी, गुयाना, सुरीनाम, टोबेगो-त्रिनिदाद सहित कई देशों की किस्मत बदल दी। आज ये वहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनते हैं और भोजपुरी की मिठास से बंधे हुए हैं। गुयाना, फिजी और सुरीनाम में भोजपुरी नैशनल लैंग्वेज में शामिल है।
मजबूरियों को मौके में बदलने की उनकी जबर्दस्त इच्छाशक्ति बिहार विभाजन और और मंडल कमिशन लागू होने के बाद तब भी दिखी, जब नौकरियां कम होने लगीं और धीरे-धीरे खत्म-सी हो गईं। यह वह दौर था, जब पढ़े-लिखे लोगों ने माइग्रेशन की राह पकड़ी और पूर्वांचल की एक बड़ी आबादी भारत के कुछ बड़े महानगरों का हिस्सा हो गई। कभी सरकारी नौकरियों के मोहताज रहे पूर्वांचलियों ने फिर कोई पूर्वाग्रह नहीं माना और महानगरों में सफलता की कहानियां लिखते चले गए।
कॉमन एजेंडा
बेटियों से प्यार और डेमोक्रेसी पर भरोसा जैसी कुछ चीजों को छोड़ दिया जाए तो पूर्वांचलियों ने वक्त के साथ कदमताल करने के लिए बाकी सारे मामलों में अपने को बहुत हद तक बदल डाला है। बेशक, सोच बदलने की उनकी रफ्तार बेहद धीमी रही है, लेकिन तरक्कीपसंद न्यू जेनरेशन ने काफी हद तक इससे मुक्ति पा ली है। पूर्वांचली आमतौर पर अमनपसंद रहे हैं और आरामपसंद भी। यथास्थितिवाद उनकी नीयत में रहा है और नियति में भी।
ये मेहनती बहुत होते हैं, लेकिन शारीरिक श्रम को इस समाज में पहले खास इज्जत नहीं दी जाती थी। मजबूर लोग मजदूरी के लिए परदेस जाते थे, लेकिन गांव-घर में काम नहीं करते थे। बेशक रोजगार की भी कमी थी, लेकिन ‘नाक‘ ने भी काम कम खराब नहीं किया। इसे आप आत्मसम्मान के प्रति उनका दुराग्रह भी कह सकते हैं। जब जमशेदपुर में टाटा ने कंपनी की नींव डाली थी, तो उन्हें कामगार बड़ी मुश्किल से मिले। वजह यह कि इंजिनियर के बारे में भी समाज में यही धारणा थी कि ‘ये यहां लाटसाहबी झाड़ रहे हैं, कंपनी में जाकर तो लोहा ही पीटते होंगे।’ लेकिन बेहतर जिंदगी की ललक ने लोगों की सोच बदली। लोग बंधी सोच और बंधे समाज से बाहर निकलने लगे और दुनिया भर के पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देना शुरू किया। जो जिस कैटिगरी में जहां फिट हो सकते थे, फिट होते चले गए। बेशक माइग्रेशन और बदलती मानसिकता ने उनके जातिगत आग्रहों को कमजोर किया तो समाज की परंपरागत सोच भी बदली।
NRB से NRI तक
जो लोग बिहार से बाहर निकल गए हैं, वे अपने बच्चों को और भी बाहर भेज रहे हैं। सिलिकन वैली से लेकर पर्थ और सिडनी तक ये आपको दुनिया के हर कोने में मिल जाएंगे। मोटरोला के सीईओ के रूप में संजय झा के नाम हाईएस्ट पेड सीईओ का ताज रहा है, तो यूके बेस्ड दो खरब रुपए के वेदांता ग्रुप के सर्वेसर्वा अनिल अग्रवाल ने अपनी 75% संपत्ति दान में देकर हाल ही में सुर्खियां बटोरी हैं। एनआरबी यानी नॉन रेजिडेंट बिहारी अब एनआरआई बनने में फख्र महसूस करता है, लेकिन मिट्टी की पकड़ ऐसी है कि वह छठ पर हर हाल में घर लौटना चाहता है। जाहिर है, आखिरकार ये जमीन से जुड़े लोग हैं। उगते सूर्य को तो सभी सलाम करते हैं, लेकिन डूबते सूर्य की पूजा की विनम्रता शायद पूर्वांचली के पास ही है।
पूर्वांचलियों के बारे में जाननेवाला कोई भी शख्स बता देगा कि जिंदादिली में इनका कोई सानी नहीं। दुनिया भर में पूर्वांचलियों ने अलग पहचान बनाई है। हर किसी के साथ खुद को ढाल लेना और उन्हें अपने साथ चलने के लिए राजी करना पूर्वांचली बखूबी जानते हैं।
सन्दर्भ,साभार : नवभारत टाइम्स ,विकिपीडिया, भारतडिस्कवरी डॉट कॉम
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