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माँ….

एक अनन्त शून्य
जहां अंकुरित हुआ
मेरा संवेदन ,

हृदय कम्पन में
महसूसता एक ‘संसार ‘,

तुम्हारी धड़कन
की मधुर ध्वनि
में लिपटा ‘शक्कर पारे’ सा ,

मुझे याद नहीं
पर सुना है
गीले – सूखे का खेल
जो चलता रहा
तुम्हारे और मेरे बीच….

फिर चला
तुम्हारी उंगली पकड़
कुछ दूर तक
याद नहीं ,

कुछ कुछ याद है
हल्का सा ….
जब तुम्हारे आंसू
देर तक बहते रहे
और मैं खेलता रहा
सांझ – ढले देर तक
बड़े बरगद के पास….
तुम ,
कितना रोए
जब मेरे घुटने छिले,
मुझे,
बोध है
तुम, मेरे साथ हो
सुबह ,चाय के प्याले
और देर रात
दूध के गिलास तक
दुनिया की ऊंच- नीच ,
अच्छा -बुरा बताते …..

मेरा
बोधत्व, संगत्व, और संवेदन
तुम्हारे ,
आलौकिक दिव्य- प्रकाश का
एक प्रतिबिंब है,
तुम्हारे स्नेहांचल
की शीतल छाया में
नन्हें पादप सा …….
एन. पी. सिंह

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