सेब बागीचों में पी. जी. आर. का इस्तेमाल कितना तर्क संगत, जानें विस्तार से….

शिमलाः ( पहाड़ी खेती ) सेब बागीचों में पी. जी. आर. (P.G.R) अथार्त पौधा बढ़वार नियंत्रक ( Plant Growth Regulator ) का इस्तेमाल किसी भी अनजान बीमारियों को निमंत्रण दे सकता है, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है।
पी. जी. आर., एक तरह का कृतिम हार्मोन होता है जो पौधे के विकास में तेजी लाने का काम कर सकता है।मानव शरीर की भांति विकास के लिए पेड़-पौधों को भी हार्मोन की जरूरत होती है, जिन्हें फाइटो-हार्मोन्स कहते हैं। जो कि दो प्रकार के होते हैं प्राकृतिक और कृत्रिम रसायन। फाइटो-हार्मोन्स पेड़-पौधों से लेकर शैवालों तक में पाए जाते हैं, यहाँ तक कि सूक्ष्म जीवों में भी पाए जाते हैं, जैसे कि एक कोशकीय कवक और बैक्टीरिया, यद्यपि इन मामलों में वे एक हार्मोनल भूमिका नहीं निभा पाते।
हार्मोन शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ विकास की गति से है। पादप हार्मोन, पौधों में जीन अभिव्यक्ति और प्रतिलेखन स्तर, कोशकीय विभाजन और विकास को भी प्रभावित करते हैं। पादप हार्मोन स्वभाविक रूप से पौधों के भीतर ही उत्पन्न होतें हैं और पौधे के विकास को प्रभावित करते हैं। कृत्रिम रूप से मानव निर्मित यौगिक और रसायन द्वारा विकास नियामक को पी. जी. आर. ( Plant Growth Regulator ) कहा जाता है।
पी. जी. आर. कोई पोषक तत्व नहीं होते, बल्कि ऐसे रसायन होते हैं जो अल्प अवधि में पौधे के विकास तथा कोशिकाओं और उत्तकों के विभेदीकरण को बढ़ावा देते हैं। कृत्रिम रूप से ऐसा करने से पौधों में स्वभाविक क्रिया प्रभावित होती है जिसके दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं।
देखने में आया है कि बागवानों में पी. जी. आर. को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां विद्यमान हैं जिसमें से कुछ लोगों का मानना है कि पी. जी. आर. का उपयोग करने से फ्लावरिंग जल्दी और ज्यादा होती है, फलों की सेटिंग बढ़िया होती है, फलों का आकार तथा रंग-रूप प्रभावित होता है, पौधों में परागन अच्छे से होता है, यह एक टॉनिक का काम करता है आदि-आदि। इन तमाम भ्रांतियों के चलते बहुत से बागवान विभिन्न नामों से चोरी-छिपे बिकने वाले पी. जी. आर. जैसे एप्पलीन, प्रोमोलोंग, पेरालोंन, परलोंन आदि ऊँचे दामों पर खरीद कर लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं।
यही नहीं इन भ्रांतियों के कारण बहुत से बागवान पी. जी. आर. खरीदने के लिए पैसे उधार लेने को मजबूर हैं। वहीं दूसरी और इसे बेचने वाले व्यापारी 500-500 मिलीलीटर करके बागवानों को एक लीटर लगभग 32,000 रुपये से लेकर 38,000 रुपये तक बेच रहे हैं। अनुमान के अनुसार प्रदेश में हर साल लगभग 500 करोड़ रुपए से अधिक मात्रा में पी. जी. आर. का कारोबार किया जा रहा है। इससे आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि हर साल इसे बेचने वाले कारोबारी किस तरह से बागवानों को लूट का शिकार बना रहे हैं। इस प्रकार के अनैतिक कार्यों में दवा विक्रेताओं के साथ-साथ बागवानों की कुछ संस्थाएँ और कुछ बागवान व्यक्तिगत रूप से संलिप्त हैं ऐसी सम्भावना को भी नकारा नहीं जा सकता।
यहां विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि इन दवाओं को अभी तक आधिकारिक तौर पर न तो प्रतिबंधित किया गया है और न ही इसके उपयोग की अनुमति दी गई है। हैरानी की बात है कि जब इस सन्दर्भ में विभाग के विभिन्न अधिकारियों से जानकारी प्राप्त की गई तो पता चला कि न तो डॉ. वाई. एस. परमार उद्यान और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन, हिमाचल प्रदेश ने फलों के लिए इसकी अनुशंसा की है और न ही भारत सरकार के Insecticide Act, 1968 के अंतर्गत गठित केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड एवं पंजीयक समिति द्वारा पारित किया गया है।
इस दौरान उद्यान विभाग के निदेशक ने विभाग की ओर से एक पत्र जारी कर अधीनस्थ अधिकारियों को Insecticide Act, 1968 के अंतर्गत प्रावधानों के अनुसार शीघ्र कार्यवाही करने के निर्देश जारी कर दिया।

पी. जी. आर. के इस्तेमाल को लेकर उद्यान विभाग तथा डॉ. वाई. एस. परमार उद्यान और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन, हिमाचल प्रदेश के वैज्ञानिकों से जब हमने जानकारी प्राप्त करनी चाही तो हमें बताया गया कि सेब के बागीचों के लिए इस तरह के रसायनों की कतई जरूरत नहीं है। एसके इस्तेमाल से अच्छे परिणाम आने की सम्भावना कम नुकसान की ज्यादा है। इस बाबत पूर्व वैज्ञानिक डॉ. एस. पी. भारद्वाज ने बताया कि पोषक तत्त्व अपनी जरूरत के हिसाब से सेब का पौधा स्वंय प्राकृतिक रूप से बनाता है,इसके लिए प्रूनिंग के समय पौधे की कांट-छाँट करते हुए विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है। पौधे में कमज़ोर बीमा होने से पोषक तत्त्व नहीं बन पाते जिससे फलों की पैदावार और आकार दोंनो प्रभावित होते हैं।
उन्होंने आगें बताया कि प्रकृति की अनमोल भेंट को नकार कर ज्यादातर लोग डिज़ाइनर फ्रूट्स के मुरीद हैं ,वे अच्छे गुणों के बजाए फल के आकार, रंग-रूप आदि के प्रति आकर्षित होते हैं परिणाम स्वरूप प्रतिबंधित दवाओं, कीटनाशक दवाओं फलों में अच्छे रंग-रूप के लिए तरह तरह के रसायनों का प्रयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं जो कि अनुचित है।

सेब के पौधों में फ्लावरिंग तथा सैटिंग आदि के लिए रसायनों का छिड़काव अनुचित है, ऐसा करने से पराग कीटों की उपलब्धता पर असर पड़ता है। डॉ. भारद्वाज ने आगे बताया कि पी. जी. आर. आदि विभिन्न रसायनों के छिड़काव से जंगली मक्खी, कुछ प्रजाति की तितलियां वगैरह कृत्रिम रसायनों के प्रति काफी संवेदनशील होती हैं। सेब के बगीचे में अधिका अधिक रसायनों का प्रयोग प्राकृतिक परागण को प्रभावित करता है तथा मजबूर हो कर बागवानों को परागण हेतु बाहर से मधुमक्खियों आदि का प्रबंधन करना पड़ता है। कृत्रिम रसायन बगीचे में कुछ वर्ष तक तो अच्छी पैदावार दे सकते हैं, परन्तु समय के साथ उनमें तरह तरह की विकृतियाँ और बीमारी होने की सम्भावना अत्यधिक रहती है।अतः बागवानों और किसानों को कृत्रिम रसायनों के प्रयोग को छोड़कर प्राकृतिक संसाधनों के साथ जैविक खेती और बागवानी की ओर ध्यान देने पर बल देना चाहिए।
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